Tuesday, November 28, 2023
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‘NOTA’ से निपटने के क्या है पार्टियों का प्लान? आइए विस्तार से जानते है क्या है पूरा माजरा!

राजनीतिक दलों या प्रत्याशियों से मतदाताओं की नाराजगी के कारण कई विधानसभा क्षेत्रों में जीत-हार के समीकरण बदल जाते हैं। मध्यप्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव का अवलोकन करें तो नाराज मतदाताओं ने जितने वोट ‘NOTA’ के दबाए, उससे कम में उन सीटों में प्रत्याशियों की हार-जीत हो गई। ऐसे ही 2018 में 13 ऐसी सीटें रही है जिन पर नोटा ने जीत हार के समीकरण बदल दिए। विधानसभा चुनाव 2018 के आंकड़ों पर नजर डालें तो लगभग 13 सीटें ऐसी थीं।

मार्जिन वाली सीटों में ग्वालियर दक्षिण विधानसभा क्षेत्र शामिल

जहां पार्टी या प्रत्याशी से मतदाताओं की नाराजगी के कारण जितने मतों से हार-जीत नहीं हुई। उससे ज्यादा वोट नाराज मतदाताओं ने नोटा में दिए थे। प्रदेश में सबसे छोटी जीत के मार्जिन वाली सीटों में ग्वालियर दक्षिण विधानसभा क्षेत्र शामिल है। यहां कांग्रेस प्रत्याशी प्रवीण पाठक भाजपा के पूर्व मंत्री नारायण सिंह कुशवाह से महज 121 मतों से चुनाव जीते। इस विधानसभा क्षेत्र के 1150 नाराज मतदाताओं ने नोटा का विकल्प चुना। इन मतदाताओं ने यदि किसी पार्टी या प्रत्याशी के पक्ष में मतदान किया होता तो परिणाम बदल सकते थे।

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2014 से नोटा पूरे देश में लागू कर दिया गया था

इसी प्रकार कोलारस, बिना,जबलपुर नार्थ, टिमरनी, ब्यावरा, मांधाता, राजपुर, जोबट, पटेलवाद, जावरा, सुवासरा, गौरठ सीटें है जिन पर नोटा ने बढ़त बनाई है।
जानकारी के लिए बता दे की निर्वाचन आयोग ने 2009 में पहली बार नोटा के विकल्प पर विचार किया। सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के बाद 2013 में शुरुआती तौर पर पांच राज्यों में इसका प्रयोग किया गया। इनमें मध्यप्रदेश भी शामिल था। हालांकि 2014 से नोटा पूरे देश में लागू कर दिया गया। इसके जरिए मतदाता कोई भी प्रत्याशी पसंद न होने पर नोटा का बटन दबा सकता है।

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पहले पार्टियां अपने स्तर पर ही जानकारी लेकर प्रत्याशी उतार देती थीं

नोटा लागू होने से पहले पार्टियां अपने स्तर पर ही जानकारी लेकर प्रत्याशी उतार देती थीं, लेकिन नोटा की शुरुआत के बाद से प्रत्येक पार्टी प्रत्याशी चयन के लिए पार्टी में रायशुमारी के बजाय निजी कंपनियों से सर्वे कराने पर ज्यादा जोर दे रही है। सर्वे के जरिए पार्टी को प्रत्याशी की क्षेत्र में इमेज के साथ जातिगत समीकरण और क्षेत्र के मुद्दे की जानकारी भी मिल जाती है। ये आंकड़े साफ़ तौर पर दलों और प्रत्याशियों से मतदाताओं की नारागजी को दिखाता है और ये भी इंडीकेट करता है जनता अगर सरकार को सत्ता में ला भी सकती तो सत्ता से बेदखल करने की ताकत भी जनता के हाथों में है।

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