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Harda News: राजनीति में चालू है दल बदल का सिलसिला, विचारधारा को नकारते हुए सत्ता की आड़ में स्वार्थ की पूर्ति

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दल बदल का सिलसिला
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Harda News/संवाददाता मदन गौर हरदा: राजनीति तेरा गजब का खेल जिस पार्टी की विचारधारा तब तक रहते है गुणगान करते थकते नहीं जब उसी विचारधारा को नकार देते हैं तो बुराई और आरोप लगाकर छोड़ते हैं आम तौर पर दलबदल करने वाले नेताओं के पास एक जैसे घिसे-पिटे तर्क होते हैं। कोई कहता है जिस पार्टी में थे हमारी उपेक्षा हो रही थी तो कोई अपने क्षेत्र की अनदेखी का आरोप लगाता है। दलबदलू नेता यह कभी नहीं बताते कि वे जिन खामियों का उल्लेख करते हुए दल बदलते हैं, उनका आभास चुनावों की घोषणा होने के बाद ही क्यों होता है? वे यह भी नहीं बताते कि क्या उन्होंने कभी उन मसलों को पार्टी के अंदर उठाया, जिनकी आड़ लेकर दलबदल लिया अजब गजब खेल खेलते हैं ये दलबदलू नेता पाला बदलने के लिए भले ही विचारधारा की आड़ लेते हों, लेकिन असल में उनकी कोई विचारधारा ही नहीं होती

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लोकतंत्र में ये समझ से परे है नेता अपने वैचारिक सिद्धांत पर खरे क्यों नहीं उतरते

लोकसभा चुनाव के नजदीक आते ही  जिस तरह नेताओं ने दल बदलना शुरू किया, उससे यही साफ हुआ कि भारतीय लोकतंत्र किस तरह अवसरवादी राजनीति से ग्रस्त है। वैसे तो दलबदल चुनाव वाले सभी राज्यों में हुआ, लेकिन मध्यप्रदेश  प्रदेश का दलबदल कुछ ज्यादा ही देखने और सुनने में आ रहा है जिन नेताओं ने सारी उम्र पार्टी में होकर बिताई वो मां समान पार्टी किसी कारण जनाधार घटता देख दलबल रहै जहां सब मान सम्मान पद नाम मिला मलाई और कुर्सी की ललक चाहत में उसे ठोकर मारकर दूसरे दल की गोद में जा बैठे लानत है

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किसान संकट में युवा बेरोजगार महंगाई चरम पर

ऐसे नेताओं की राजनीति को  जो किसान संकट में युवा बेरोजगार महंगाई चरम पर ऐसे समय में सड़क पर संघर्ष करने का समय है पर कहा जनता जाए भाड़ में जहां बम वहां हम की कहावत चरितार्थ होती दिखाई दे रहे हैं थोड़ी शर्म बची हो तो बोली भाली जनता का जनसमर्थन लेकर जीत जाना अगर किसी कारण सरकार नहीं बनी तो जिस दल की सरकार है उसमें मिल जाना और जिस पार्टी में आप कई बरसों से रहे इस मां समान पार्टी को लक्षण लगाकर सत्ता दल में प्रवेश कर गए क्या यही नैतिकता है।

विचारधारा की आड़ स्वार्थ की पूर्ति

दलबदलू नेता पाला बदलने के लिए भले ही विचारधारा की आड़ लेते हों, लेकिन असल में उनकी कोई विचारधारा ही नहीं होती दलबदलू नेता यह कभी नहीं बताते कि वे जिन खामियों का उल्लेख करते हुए दल बदलते हैं उनका आभास उन्हें चुनावों की घोषणा होने के बाद ही क्यों होता है? साथ ही वह जिस दल को छोड़ते हैं और जिससे जुड़ते हैं उन दोनों का सिरदर्द बढ़ाते हैं।

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